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साम्प्रदायिकता (लघुकथा)-contest

पराग
पराग
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सीता हरण के बाद राम और लक्ष्मण दर-दर भटक रहे हैं. लेकिन सीता मैय्या का कोई सुराग नहीं लग पाया है. थककर बेहाल हुए दोनों भाई वनों से निकलकर शहर में पहुँच गए हैं. भूख और प्यास से व्याकुल… तभी सामने की सड़क पर उन्हें एक दुकान दिखती है. पास आकर देखा तो यह एक कार्यालय था. एक राष्ट्रीय पार्टी का कार्यालय. कार्यालय के ऊपर एक बोर्ड टंगा था, जिस पर लिखा था-धर्मनिरपेक्ष पार्टी.
भगवान् राम, लक्ष्मण समेत पार्टी कार्यालय में घुस गए हैं.
“पानी मिलेगा भाई?” राम जी ने सामने बैठे एक कुर्ताधारी नेताजी से पूछा.
“आप कौन हैं साहब…..” नेताजी ने पीक थूकते हुए सवाल दागा.
“राम, ”
“राम, कौन राम?”
“मर्यादा पुरुषोत्तम राम, दशरथ नन्दन राम ”
“हैं??” नेताजी के कान में जैसे किसी ने विष घोल दिया. वे कुर्सी से गिरते-गिरते बचे.
“अरे, महाराज यहाँ क्यों आये हो, किसी ने देख लिया तो…तुम मरवाओगे.”
“क्यों, मेरे यहाँ आने से ऐसा क्या हो गया.?”
“अरे..समझते नहीं हो…., मैं हूँ धर्मनिरपेक्ष…तुम्हारे साथ किसी ने देख लिया तो मेरी छवि खराब हो जायेगी, और अगर किसी मीडिया वाले ने अखबारों में मेरी फोटो तुम्हारे साथ छाप दी तो मुझे साम्प्रदायिक करार दे दिया जायेगा …तुम जाओ यार यहाँ से…”
“लेकिन मैं साम्प्रदायिकता का प्रतीक कैसे हुआ…इतिहास गवाह है कि मेरे राज में सारे वर्ग सुखी थे…मजहब की कोई दीवार नहीं थी…न कोई दंगे हुए…ना फसाद..मैंने कभी किसी ख़ास मजहब को दबाने या उभारने की शिक्षा नही दी. फिर मैं साम्प्रदायिक….”
“अरे महाराज वक्त को समझो, अब वह युग नही है…आजकल धर्मनिरपेक्ष होना ही नहीं दिखना भी जरूरी है..और आप कहीं से भी धर्मनिरपेक्ष नहीं दिखते…. और आपने ऊपर से नीचे तक ये जो भगवा रंग पहन रखा है ना, सबसे ज्यादा साम्प्रदायिकता की बू इसी भगवा रंग से आती है.राजनीती में तो वोटों का सारा गणित भगवा के कारण खराब हो जाता है. और..अब तो मार्केट में एक और नया शब्द आ गया है-भगवा आतंकवाद. इसलिए बाबा माफ़ करो…क्यों मेरा और मेरी पार्टी का सत्यानाश करने पर तुले हो… ”
“चलो लक्ष्मण…भारत अब बदल गया लगता है..चलो कहीं और चलते हैं…” राम जी ने गहरी श्वास छोड़ी, और तेजी से बाहर निकल गए..
“सॉरी राम जी, क्या करें कुछ महीने बाद चुनाव होने वाले हैं…वोट बैंक का सवाल है.. ” पीछे से नेताजी बुदबुदाये.

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