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सिंहासन खाली करो…जनता आती है……

पराग
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भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता और सरकारों की मनमानी को लेकर विश्व के अनेक देशों में इन दिनों जनता का गुस्सा सातवे आसमान पर है. ये आम जनता की ताकत ही है की उसने विद्रोह करके ताकतवर होस्नी मुबारक को देश छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया. लीबिया जैसे देशों में भी निक्कमे जनप्रतिनिधियों के खिलाफ बगावत की बयार बह रही है.
अपने देश में पिछला वर्ष घोटालों की भेंट चढ़ गया. हमारे जनप्रतिनिधियों और बड़े अधिकारीयों ने शहीदों की विधवाओं को मिलने वाले फ्लेटों तक को नहीं बक्शा…लेकिन इन बुरी ख़बरों के बीच एक अच्छी खबर यह है कि अब हमारे देश में भी इन घोटालों और भ्रष्टाचार के प्रति आवाज बुलंद होने लगी है. हालाँकि मिस्र और लीबिया जैसा जनविद्रोह हमारे यहाँ नहीं होना चाहिए. लेकिन गलत काम का इतना जनविरोध तो होना ही चाहिए कि सरकार और विश्व को लगे की हमारी अवाम चेतन है जड नहीं. आज के राजनीतिक हालत पर मुझे कविवर दिनकर जी की  कविता जनतंत्र का जन्म की याद आ रही है, जो हमने अपने स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ी थी. वर्ष 1950 में लिखी गयी यह कविता आज भी प्रासंगिक है और सोये हुए लोगों को जगाने का काम कर सकती है. जरा गौर कीजिये…

जनतन्त्र का”जन्म / रामधारी सिंह दिनकर”

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता?हां,लंबी – बडी जीभ की वही कसम,
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

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