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स्वामी रामतीर्थ का जन्म पकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गुजरांवाला जिले में हुआ. इनके जन्म लेने के कुछ दिनों के बाद ही इनकी माता का निधन हो गया था. रामतीर्थ बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे. उनकी उम्र के बालक जब गुड्डे-गुड़ियों के खेल खेलते थे, उस उम्र में रामतीर्थ का समय अनेक गूढ़ विषयों पर चिन्तनं-मनन में गुजरता था. पढाई-लिखी में प्रखर होने के कारण रामतीर्थ ने गणित में स्नातकोत्तर की उपाधि धारण की और लाहोर में गणित के प्रोफ़ेसर के रूप में जीवन बिताने लगे. वर्ष 1897 उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट रहा, जब लाहौर में एक कार्यक्रम में उन्हें स्वामी विवेकानन्द का भाषण सुनने का मौका मिला. स्वामी जी के ओजपूर्ण विचारों को सुनकर रामतीर्थ के मन में देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की भावना उत्पन्न हुई. इसी भावना के चलते प्रोफ़ेसर रामतीर्थ स्वामी रामतीर्थ बन गए. अब स्वामी रामतीर्थ का एक ही लक्ष्य था-समाज को जागरूक करना, हिंदुत्व के बारे में लोगो को समझाना और सामाजिक कुरीतियों को दूर करना. यह 19 वीं शताब्दी का समय था जब देश खासकर युवा शक्ति उनके ओजस्वी विचारों और राष्ट्रवादी भाषणों का दीवाना बन रहा था. उनके खोजपरक व लीक से हटकर विचारों ने युवा वर्ग को काफी प्रभावित किया. श्रीकृष्ण और अद्वैत वेदान्त पर लिखे उनके निबंधों ने देश में एक नई वैचारिक क्रांति को जन्म दिया. ये स्वामी रामतीर्थ की अदभुत भाषण शैली और मौलिक विचारों का ही प्रभाव था की भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी उनकी वाणी के लोग प्रशंसक बने. वे जापान में विशेष रूप से हिंदुत्व के बारे में समझाने के लिए गये.
1902 में उन्होंने दो साल तक अमेरिकियों को हिंदुत्व के मर्म के बारे में समझाया. उन्होंने बताया की हिंदुत्व एक धर्म विशेष की विचारधारा ही नहीं, अपितु एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है.
स्वामी रामतीर्थ हिंदुत्व के पक्षकार थे और हिंदुत्व पर उन्होंने देश और विदेशों में कई सेमीनार किये, लेकिन उन पर कभी भी साम्प्रदायिक होने का आरोप नहीं लगा. जानकार लोग मानते हैं की यदि रामतीर्थ आज होते तो भारत में अयोध्या विवाद और छदम धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दे ही नहीं होते.
स्वामी रामतीर्थ ने निम्न वर्ग के लोगों में शिक्षा का प्रसार करने और जातिवादी प्रथा को समाप्त करने का अभियान चलाया. उनको इस अभियान में काफी हद तक सफलता भी मिली. जाती, धर्म और अशिक्षा में जकड़े समाज को उनके बेबाक विचारों ने काफी प्रेरणा दी.स्वामी रामतीर्थ का कहना था की भारत को मिशनरियों की नहीं बल्कि शिक्षित युवाओं की जरूरत है. भारतीय युवाओं को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए उन्होंने युवाओं को अमेरिका भेजने का अभियान चलाया.
1904 में जब वे अमेरिका से भारत वापस आये तो देश का एक बहुत बड़ा वर्ग उनका प्रशंसक बन चुका था. लेकिन जिज्ञासु स्वामी रामतीर्थ की ज्ञान प्राप्त करने की भूख अभी खत्म नही हुई थी. स्वामी जी सांसारिक जीवन को छोड़कर जीवन-दर्शन का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे, इसलिए वे सब कुछ छोडकर हिमालय की कन्दराओं में चले गये. यहाँ उन्होंने व्यवहारिक वेदान्त दर्शन पर उन्होंने एक किताब लिखना आरम्भ किया. इस किताब में उन्होंने अपने जीवन के अनुभव, धर्म और समाज के अनसुलझे रहस्यों को शब्द रूप देने का प्रयास किया, मगर अफ़सोस उनका यह प्रयास पूरा नहीं हो पाया. 17 अक्तूबर 1906 दीवाली के पावन दिन जब हिमालय क्षेत्र में गंगा के तट पर स्नान कर रहे थे तो गंगा में डूबने से उनकी मौत हो गयी. उनके अनुयायी मानते हैं कि वह गंगा में डूबे नहीं थे, अपितु गंगा मैय्या ने अपने इस लाडले और भारत के गौरव को अपने स्नेहमयी आगोश में ले लिया था.
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