आज अचानक हरिशंकर परसाई से मुलाकात हो गयी. व्यंग्य के सरताज और मेरे गुरु परसाई जी को अपने निकट देखकर मैं खुश तो था ही…हैरान भी था. वैसे आप सब को मैं बता दूं की हरिशंकर मेरे गुरु रहे हैं. घर में उनकी तस्वीर लगाकर और उनको साक्षी मानकर एकलव्य की तरह लेखन कार्य करता रहा हूँ. कभी उनके सामने जाने और उन्हें अपना गुरु बताने की मेरी हिम्मत नहीं हुई….क्या पता द्रोण की तरह वो भी गुरु दक्षिणा में मुझसे अंगूठा मांग लेते…तो मेरा क्या होता… बहरहाल आज जब अचानक मेरे घर के पास मैंने परसाई जी को देखा…तो मुझे अपार ख़ुशी हुई. प्यासा कुँए के पास जाता है…लेकिन आज तो हास्य-व्यंग्य का पूरा समुद्र मेरे घर के सामने ठांठे मार रहा था…मै ससम्मान उन्हें अपने घर ले गया…. “गुरु जी क्या लोगे….ठंडा या गरम….” मैंने कहा. मेरी बात को अनसुनी करते हुए उन्होंने कहा “क्या करते हो….” “व्यंग्य लिखता हूँ…व्यंग्यकार बनने की इच्छा है…” “क्यों…व्यंग्यकार ही क्यों…” “जब-जब मैं समाज में कुछ भी गलत घटित होते देखता हूँ..तो मुझे उसे शब्दों में ढालने की जरूरत सी महसूस होती है….इसलिए मैं उस घटना को व्यंग्यात्मक लहजे में लिखता हूँ ताकि समाज की रूढ़िवादी व्यवस्था पर चोट कर सकूं…..” मैंने काफी समय पहले किसी पत्रिका में पढ़े किसी स्थापित व्यंग्यकार के इंटरव्यू के कुछ अंश दोहरा दिए… परसाई जी ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-“चले हैं..व्यंग्यकार बनने …पता है तुम्हे एक व्यंग्य लिखने में लेखक जितने कांटेदार शब्दों का प्रयोग करता है.. उससे कहीं ज्यादा कांटे उसकी जिन्दगी में घुस जाते हैं….” वे आगे बोले-“अच्छा बताओ…व्यंग्य लिखकर कितना कमा लेते हो…” “जी …एक लेख के 400 -500 रु मिल जाते हैं….कुल मिलाकर 2 -3 हजार रूपये.माहवार … ” मैं अपनी इनकम पर शरमाते हुए बोला. अचानक परसाई जी गंभीर हो गये..बोले “क्या तुमने सोचा कि इस कमाई में घर का गुजारा कैसे करोगे…बीवी-बच्चों का खर्चा कैसे वहन करोगे…व्यंग्य लिखते-लिखते तुम हंसी का पात्र बन जाओगे और एक दिन दुनिया तुम पर व्यंग्य करेगी….” “लेकिन महाराज….आप व्यंग्य लेख के इतने विरोधी क्यों…आखिर व्यंग लेखों ने आपको इतनी शोहरत दिलाई…..” मैं थूक गटकते हुए बोला. “प्रसिद्धी. शोहरत….हूँ….” परसाई जी ने गहरी सांस छोड़ी “तुम्हे पता है….खालिस शोहरत से जिन्दगी नहीं चलती…मेरे साथ के कई लेखक फिल्मे लिखने लग गए…और करोडपति हो गये…कई गीतकार बन गये….तो कई अश्लील साहित्य लिखकर लक्ष्मीपति बन गए….और मैं..और मैं अपने अंतिम दिनों में कितने अभावों से गुजरा हूँ…यहाँ तक कि बीमारी के इलाज के पैसे भी नहीं थे मेरे पास….इसलिए याद रखो खाली सरस्वती के उपासक मत बनो…..लक्ष्मी जी को भी धूप-बत्ती करो….” “अब मैं क्या करूं….” मैंने पूछा . “लिखते रहो…..लेकिन तुरंत प्रभाव से अपनी शैली बदल दो….अनारा गुप्ता पर काल्पनिक प्रेम कहानी लिख डालो….या फिर काली साड़ी…जैसी बेसिरपैर की कथा…जिन्ना का जिन्न…..या सचित्र रंगीन…..कुछ भी ऐसा लिखो जिसमे गुणवत्ता न हो….लेकिन हंगामा मचने का पूरा मसाला हो…..अपने लेखों में किसी को गाली दो…किसी समुदाय पर भद्दी टिपण्णी कर दो ….और हाँ तुम्हारे लिए तो टीवी पर भी स्कोप है….किसी लाफ्टर शो की फूहड़ कोमेडी स्क्रिप्ट लिखना शुरू कर दो….अपने हो इस लिए कहता हूँ की खालिस लेखक मत बनो…हमारे अनुभवों से सबक लेकर लेखन में थोड़ी राजनीती..थोड़ी बेईमानी…थोड़ी बेशर्मी …थोडा नंगापन….भर दो…फिर देखो तुम पर देश और घर दोनों को ही नाज होगा….हो सकता है की साहित्य के मंदिर में कुंडली जमाये किसी मठाधीश की नजर तुम पर पड़ गई तो हो सकता है की अकादमी अवार्ड भी मिल जाये….” अच्छा चलता हूँ…बेस्ट ऑफ़ लक” कहकर परसाई जी घर से बाहर आ गये… “अरे उठो…कब तक सोए रहोगे…..” पत्नी ने मुंह पर पानी का छींटा मारा..
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