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आसान नहीं है अच्छी कॉमेडी फिल्म बनाना

पराग
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पिछले दिनों फिल्म हाउसफुल देखने का मौका मिला. निर्देशक साजिद खान की इस फिल्म के रिलीज़ होने से पहले फिल्म के काफी चर्चे सुने थे. लेकिन फिल्म देखने के बाद पता चला कि फिल्म मैं ऐसा कुछ खास नहीं जिसकी तारीफ कि जा सके.
साजिद को फिल्म industry में एक बडबोले इंसान के रूप में जाना जाता है. एक ऐसा इंसान जो अपने टीवी कॉमेडी शो में हर मशहूर स्टार कि खिल्ली उड़ाने के लिए विख्यात या फिर कहिये की कुख्यात है. उनके इसी स्वभाव के कारन फिल्म मेकर आशुतोष गोवारिकर की उनसे एक अवार्ड समारोह में तनातनी हो गयी थी. बहरहाल यदि हम हाउसफुल की बात करें तो फिल्म के बाद साजिद को भी पता चल गया होगा कि स्टार्स कि मिमिक्री करना अलग बात है और कॉमेडी फिल्म बनाना अलग बात. यद्यपि फिल्म में वो सभी मसाले उपलब्ध हैं जो भीड़ खींचने के लिए होने चाहिए, मसलन जिया खान, लारा दत्ता और दीपिका पादुकोण को जितने छोटे कपडे निर्देशक पहना सकता था, उतने पहनाये हैं. बढ़िया विदेशी लोकेशन पर सीन फिल्माए गए हैं. लेकिन स्क्रिप्ट इतनी लचर है कि इंटरवेल तक आते आते साजिद कि पोल खुलने लगती है. कॉमेडी के नाम पर जो situation गढ़ी गई हैं, उनसे सर में दर्द होने लगता है. फिल्म में पनौती शब्द का प्रयोग इतनी बार किया गया है कि यह फिल्म ही पनौती लगने लगती है. अर्जुन रामपाल जैसे एक्टर को फिल्म में जाया किया गया है. एक ज़माने के हिंदी फ़िल्मी हीरो चंकी पांडे को एक्स्ट्रा जितनी भूमिका में देखकर अफ़सोस होता है. शंकर एहसान लोय के संगीत में भी कोई नयापन नहीं दिखता. फिल्म का सबसे पोपुलर गाना है “धन्नो ” लेकिन यह गाना भी प्रकाश मेहरा कि फिल्म लावारिस के गीत “आपका क्या होगा जनाबेआली ” की हुबहू नक़ल है. कुल मिलकर साजिद की यह फिल्म एक औसत दर्जे की फिल्म है, जिसमे नया कुछ नहीं. साजिद की पिछली फिल्म हे बेबी भी औसत ही थी. यदि उन्हें कामयाब फिल्म मेकर बनना है तो उन्हें कुछ मौलिक कांसेप्ट लाना चाहिए. मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा जैसे फिल्मकारों की नक़ल करके वह एक नक्काल तो बन सकते हैं, मगर कालजयी फिल्म मेकर नहीं.

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